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वसि॑ष्ठासः पितृ॒वद्वाच॑मक्रत दे॒वाँ ईळा॑ना ऋषि॒वत्स्व॒स्तये॑ । प्री॒ता इ॑व ज्ञा॒तय॒: काम॒मेत्या॒स्मे दे॑वा॒सोऽव॑ धूनुता॒ वसु॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vasiṣṭhāsaḥ pitṛvad vācam akrata devām̐ īḻānā ṛṣivat svastaye | prītā iva jñātayaḥ kāmam etyāsme devāso va dhūnutā vasu ||

पद पाठ

वसि॑ष्ठासः । पि॒तृ॒ऽवत् । वाच॑म् । अ॒क्र॒त॒ । दे॒वान् । ईळा॑नाः । ऋ॒षि॒ऽवत् । स्व॒स्तये॑ । प्री॒ताःऽइ॑व । ज्ञा॒तयः॑ । काम॑म् । आ॒ऽइत्य॑ । अ॒स्मे इति॑ । दे॒वा॒सः । अव॑ । धू॒नु॒त॒ । वसु॑ ॥ १०.६६.१४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:66» मन्त्र:14 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:14


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वसिष्ठासः) वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य में अत्यन्त वास करनेवाले (पितृवत्-वाचम्-अक्रत) गुरु को पिता के समान मानकर उसके वचन-आज्ञा का पालन करें (देवान्-ऋषिवत्) अन्य जीवन्मुक्त परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए प्रशस्त ऋषियों की भाँति विद्वानों को अपने कल्याण के लिए सेवन करते हुए (प्रीताः-इव ज्ञातयः) प्रसन्न-तृप्त बान्धवों के समान (देवासः कामम्-एत्य) देव-विद्वानों ! यथेष्ट हमारे घर को प्राप्त होकर (अस्मे वसु-अवधूनुत) हमारे लिए बसानेवाले ज्ञानधन को प्रेरित करो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य में निष्णात जो विद्वान् हों, उनका पिता के समान आदर करना चाहिए तथा ज्ञानलाभ लेना चाहिए। परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए जीवन्मुक्तों को ऋषियों की भाँति सम्मानित करके अध्यात्मलाभ लेना चाहिए। विद्वानों को बन्धुओं के समान स्नेहदृष्टि से देखते हुए घर पर बुलाकर ज्ञानोपदेश ग्रहण करना चाहिए ॥१४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वसिष्ठासः) वेदाध्ययनब्रह्मचर्ययोरतिशयेन वासिनः “वसिष्ठाः-अतिशयेन ब्रह्मचर्ये कृतवासाः” [ऋ० ७।३३।३ दयानन्दः] (पितृवत्-वाचम्-अक्रत) गरुं पितृवन्मत्वा तस्य वचनमाज्ञापालनं कुर्वन्तु (देवान्-ऋषिवत्-स्वस्तये-ईळानाः) अन्यान् गुरुभिन्नान् जीवन्मुक्तान् परमात्मसाक्षात्कृतवतः प्रशस्तानृषीनिव कल्याणाय तान् सेवमानाः (प्रीताः-इव ज्ञातयः-देवासः कामम्-एत्य) प्रसन्नाः-तृप्ता बान्धवा इव विद्वांसः ! यथेष्टमस्माकं गृहमागत्य (अस्मे वसु-अवधूनुत) अस्मभ्यं वासयित्रधनं ज्ञानधनमवप्रेरयत ॥१४॥